संपादक की कलम से
कोरी-कोली समाज, हिंदू कम्युनिटी का एक ऐसा तबका, जिसका एक बड़ा हिस्सा शिक्षित नहीं है, सजग नहीं है, जागरूक नहीं है और कई ताकतवर जातियों की तरह यह पूरा समाज संगठित भी नहीं है। संगठित न होने की वजह से हाशिये पर पड़ा यह समाज अब तक कोई बड़ी राजनीतिक ताकत भी नहीं बन पाया है। यहां तक कि कोरी-कोली समाज के पास अपना ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान और प्रतिष्ठा हासिल हो।
राजनीतिक चेतना के नाम पर कोरी-कोली समाज लगभग शून्य है। सियासी भागीदारी के नाम पर कुछ बड़ी पार्टियों का वोट बैंक बनना इस समाज की नियति बन चुकी है। ग्रामीण इलाकों में कोरी-कोली समाज से जुड़े नेताओं की राजनीति पंच-सरपंच और प्रधान से आगे नहीं बढ़ पाती, तो वहीं शहरों में इनकी राजनीतिक चेतना रिजर्व सीट पर टिकट मिल जाने तक ही सीमित है। कोरी-कोली समाज के ये तथाकथित नेता अगड़ी जातियों का पिछलग्गू बनना ही अपनी शान समझते हैं, या फिर किसी छोटे-मोटे पद की लालसा उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर देती है।
समाज के आम लोग इन्हें ही अपनी जाति का नेता मान लेते हैं और उनसे ये उम्मीद पाल लेते हैं कि वो अपने समाज का कुछ भला करेंगे, लेकिन हकीकत में इन नेताओं का लक्ष्य अपना भला करना होता है।
खासकर उत्तर भारत में अभी तक रिजर्व सीटों की कृपा से कोरी-कोली समाज के जो विधायक-सांसद बने भी हैं, उनका समाज के लिए योगदान देख लें, तो सब कुछ अपने आप ही साफ हो जाता है। चुनाव जीतते ही कोरी-कोली समाज के इन नेताओं को लगने लगता है कि अब उनका स्तर सजातीय लोगों के मुकाबले ऊपर उठ गया। अब तो उनका उठना-बैठना ब्राह्मणों-ठाकुरों के बीच में है, इसलिए वो खुद को भी उनके समकक्ष समझने लगते हैं। जबकि असली बात तो ये है कि बड़ी पार्टियां रिजर्व सीट की मजबूरी में उन्हें टिकट देती हैं। इस मजबूरी को कोरी-कोली समाज के नेता अपनी पार्टी का बड़ा अहसान समझ लेते हैं और उन्हें गलतफहमी हो जाती है कि पार्टी में उसकी बड़ी इज्जत है।
सामाजिक जागरूकता के नाम पर कोरी-कोली समाज परिचय सम्मेलन, जातीय सम्मेलन जैसे कार्यक्रमों तक ही सीमित है। ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन तो सामाजिक जागरूकता के नाम पर किया जाता है, लेकिन इनका मुख्य मकसद होता है शादी के लिए लड़के-लड़कियां ढूंढना। कई बुजुर्गवार तो बाकायदा लड़के-लड़कियों का रजिस्टर बनाकर सम्मेलन में शरीक होते हैं। उनके व्यवहार से लगता है कि बस शादी ही इनके समाज की सबसे बड़ी चुनौती है, जिसे पूरा करने में मदद करके वो अपने समाज की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं।
कोरी-कोली समुदाय के समाजसेवियों के बारे में एक बात और गौर करने लायक है। जब तक ये सरकारी नौकरी में रहते हैं, तब तक इन्हें अपने समाज की याद नहीं आती, लेकिन रिटायर होते ही इनके मन में सोशल वर्क और कोरी-कोली समाज के उत्थान की इच्छा जाग उठती है। इनका सबसे पहला काम होता है अपनी एक संस्था बनाकर उसका अध्यक्ष बन बैठना। इससे उन्हें लगता है कि रिटायरमेंट के बाद भी उनके पास पहले जैसा ही प्रभावशाली पद है। जिसके जरिये वो लोगों पर आर्डर झाड़ सकते हैं। हुकुम चला सकते हैं और अपनी बातें लाद सकते हैं। बस इसी गलतफहमी में जीते हुए वो अपनी बाकी की जिंदगी काट देते हैं।
जातिवाद और जातीय श्रेष्ठता का भाव तो कोरी-कोली समाज के लोगों में कूट-कूटकर भरा हुआ है। किसी से भी पूछ लें वो यही फरमाएगा कि सरकार ने भले ही उन्हें अनुसूचित जाति या ओबीसी में रख दिया है, लेकिन उनके पूर्वज तो क्षत्रिय थे। ये लोग खुद को कोली क्षत्रिय और कोली राजपूत बताकर हकीकत को नकारने की पूरी कोशिश करते हैं। अन्य निचली जातियों के लोगों को तुच्छ समझते हैं और खुद को एससी, ओबीसी में अपेक्षाकृत उच्च समझकर गौरवान्वित होते रहते हैं। हर चीज में पीछे होने के बावजूद इनके दिलो-दिमाग में छुआछूत की भावना इस कदर भरी है, जैसे कि ये अभी-अभी ब्रह्मा के मुख से पैदा होकर आ रहे हों। कोरी-कोली समाज की विडंबना है कि इस जाति से ताल्लुक रखने वालों ने खुद को 'राजपूत' समझने का भ्रम पाल रखा है।
कोरी-कोली समाज के लोग अंधविश्वास और पाखंड से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं हैं। घर में कथा भी करवाएंगे और रोज मंदिर में घंटा बजाने भी जाएंगे। हालत ये है कि वो कभी इस बारे में सोचते ही नहीं हैं कि जिन धार्मिक कर्मकांडों को वो आंख मूंदकर फॉलो कर रहे हैं उनका औचित्य क्या है। मकसद क्या है। उनके पीछे लॉजिक क्या है। बस इतना ही सोच पाते हैं कि सब करते हैं तो उन्हें भी करना है। उनके पूर्वज करते थे तो वो भी करेंगे। जीते-जी भले ही अपने मां-बाप की सेवा न करें, लेकिन मरने के बाद श्राद्ध जरूर करेंगे। मर चुके रिश्तेदार के लिए 56 प्रकार के व्यंजन जरूर बनाएंगे, लेकिन जीते जी शायद उनके पूर्वज को इतने व्यंजन देखने को भी न मिले होंगे। इतना ही नहीं, भले ही जेब खाली हो, फिर भी कर्ज लेकर मंदिर में जाकर पंडित को दान जरूर करेंगे।
बस भेड़ों की तरह चलते चले जाना है। अपने दिमाग और तर्क का इस्तेमाल नहीं करना है। बच्चे का जन्म हुआ है तो पंडि़त को दावत खिलानी है। दक्षिणा चढ़ानी है। घर में किसी की मृत्यु हो गई है तो भी पंडित जी को भोज कराना है और दक्षिणा देनी है। बच्चे का नाम रखना है तो दक्षिणा वसूलकर पंडित ही रखेगा। कुंडली बनवाना भी जरूरी है। मानो पूरी दुनिया के लोग कुंडली पर ही जीते हैं। और कुछ नहीं तो साल भर में चार-पांच बार सत्यनारायण की कथा ही सुन लेंगे। पंडित जी जो कहानी सुना रहे हैं उसमें कितना सच है कितना फर्जीवाड़ा इसके बारे में सोचने की जहमत भला कौन उठाए।
कोरी-कोली समाज के बहुत से नौजवान अपने कंधे पर कांवड़ लाद कर ऐसे निकलते हैं कि जैसे धर्म की रक्षा का सारा जिम्मा इनके ही कंधों पर है। पिछले दिनों एक रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ था कि कांवड़ लेकर जाने वालों में 90 प्रतिशत युवक अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति के होते हैं। आखिर सवर्णों को शिवजी और गंगा मइया कांवड़ लेकर क्यों नहीं बुलातीं? इस पर समाज के युवकों को सोचने की फुर्सत ही नहीं है, या फिर दिमाग की तरंगे वहां तक सोच ही नहीं पातीं। ढर्रे पर चलना आसान है और सुविधाजनक भी, तो बस चले जा रहे हैं। जो इस पाखंड और अंधविश्वास को छोड़ने और इससे निकलने की बात करता है, उसकी बात सुनने की फुर्सत किसी को नहीं है। सब धर्म की पताका लहराने में व्यस्त हैं। वही धर्म जिसने इन्हें जातियों और वर्गों में बांट रखा है। उसी धर्म की ध्वजा उठाकर घूमने में इन्हें गर्व महसूस होता है। यही गर्व जब एक कदम और आगे बढ़कर हिंदू होने के गर्व में बदलता है तो सांप्रदायिक दंगों की आग लगाने और कत्ल-ओगारत मचाने से भी गुरेज नहीं करता।